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  • रंगकर्म की दुनिया में पहला कदम....बनाम नाटक और मैं .

    रंगमंच की दुनिया में मेरा पहला कदम तब ही पड़ गया शायद जब मैं इस दुनिया के रंगमच पर अवतरित हुआ...दादा से लेकर बाबूजी तक नाटकों की एक परंपरा का हिस्सा भर ही था. आज के रंगमंच और तब के रंगमंच में काफी अंतर हुआ करता था. "पारसियन थियेटर " वाली शैली का दौर था वो ...ऐतिहासिक और नाटकों ने रंगमंच को घेर रखा था..देश को आज़ाद हुए भी ज्यादा समय नहीं हुआ था..

    स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ अबतक मंच पर चल ही रही थी...उस समय लोगों को आज की तरह आपाधापी भी नहीं थी..."वनएक्ट" नहीं "फुलएक्ट " नाटक हुआ करते थे..उस समय "एलिट और आम आदमी " में कोई अंतर नहीं था..नाटक आम आदमी के लिए हुआ करते थे.. वो भी पुरे "टाम-झाम" और धूम धडाके के साथ ....एक और अनोखी बात उस समय देखने को मिली ...मेरे गाँव में एक क्रिकेट टीम थी "रिमझिम क्रिकेट क्लब " अपना सालाना जलसा नाटकों के आयोजन से मानती थी ...जिला मुख्यालालय मुंगेर (जो बन्दूक निर्माण के वैध अवैध कारोबार के लिए आज भी ख्याति लब्ध है ) से लगभग तीस किलोमीटर दूर एक ऐसा गाँव जहाँ बिजली भी मयस्सर नहीं थी ...मैं बात कर रहा हूँ , रिमझिम क्रिकेट क्लब के सालाना जलसे की ...मुझे याद है तत्कालीन घोरघट (मेरा गाँव ) का सबसे आधुनिक संस्करण विनय ..जब रिक्शा पर बैठकर पुरे इलाके में प्रचार करते थे - मेरे प्यारे भाई बहनों तेरे तलबगार हैं, रिमझिम क्रिकेट क्लब का सुन्दर त्यौहार है....पूरे लारे ले और सुर में गाया जाता था...जिस तरफ से भी रिक्शा गुजरता लोग चर्चा में मशगूल हो जाते की इसबार कालिया डांसर आने वाला है.. पुरे इलाके में उत्सव का माहौल ...बांस-बल्ला गाड़ना शुरू...दुकाने लगनी शुरू, मिठाई से लेकर गुब्बारे तक..दूर-दूर से नाते रिश्तेदार नाटक देखने के लिए सोपरिवार पंद्रह दिन पहले आकर जम जाते , पूरे गावं की यही कहानी थी...धीरज चौधरी से लेकर परमेश्वर साव तक...रंगकर्मियों की एक समृद्ध परंपरा थी... मेरे बाबूजी विद्रोही स्वभाव के थे..सामाजिक नाटक की नीव रखी ..पहला नाटक खेला "घूँघरू" बाबूजी ने लड़की के बाप का रोल किया था, दहेज़ न दे पाने की मजबूरी में जब लड़की के बाप की आँखों से आँसू बहे तो उसके साथ पूरा गावं रोया था..मैं भी दर्शक दीर्घ में था अपने परिवार के साथ..अच्छी तरह से याद है भैया भोकार पार कर रोने लगे थे..जब , ग्रीनरूम में ले जाकर बाबूजी की गोद में दिया गया तब ही वो चुप हुए थे. सामाजिक नाटक खेलने के अपराध में बाबूजी पर पंचायत ने चौदह रूपये का जुर्माना भी किया था..फिर, तो सामाजिक नाटकों का दौर ही चल पड़ा ..बाबूजी ने ताबड़तोड़ कई नाटकों के मंचन किये ... मेरे गाँव में एक संस्था बनी "आंबेडकर सांस्कृतिक मंच" ..हाँ , मेरे घर में हमेशा माँ-बाबूजी के बीच होने वाली तीखे बहस का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूँ..जब, बाबूजी नाटक के लिए पूरी की पूरी तनख्वा फूक देते थे तो "माँ" का इतना तो बनता ही है..ऐसा नहीं है की बहस अब बंद हो गयी है...पर, इन बहसों में माँ की मौन स्वीकृति भी शामिल हो गयी.. खैर..अब सीधे प्रसंग पर आने की कोशिश करता हूँ..यानी "रंगमंच की दुनिया में मेरा पहला कदम"

    बाबूजी ने एक नाटक लिखा -"हर डाल पर उल्लू " इसी नाटक ने मुझे पहला मौका दिया. बिहार के तत्कालीन जल संशाधन मंत्री जयप्रकाश यादव उस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे..नाटक शुरू हुआ और "माननीय" निकल लिए...जहाँ तक मुझे याद आ रहा है 1991 का साल था वो..फिर, मैं अपनी आगे की पढाई के लिए नवोदय चला गया जहाँ एक प्रहसन में काम किया... फिर जब घर लौटा तबतक सबकुछ बदल चूका था..अमूमन काली पूजा पर खेले जाने वाले नाटकों को बाबूजी त्योहारों की परिधि से बाहर ले आये थे..अब न केवल आंबेडकर सांस्कृतिक मंच बिहार बल्कि , बिहार के बाहर भी अपनी प्रस्तुतियां करने लगा था ...मैं भी टीम का हिस्सा बन गया ..देश के कई हिस्सों में कई नाटक खेले मेरे अन्दर के लेखक ने भी जौहर दिखाया एक नाटक लिखा "मौत " खुद अभिनय किया खुद निर्देशन ..काफी नाट्य प्रतियोगिताएं में नाटक किया..काफी पुरस्कार भी मिले ...मेरा मनोबल बढ़ने लगा था..बाबूजी की संस्था में हम बच्चों की कदर नहीं थी (ऐसा हम बच्चों को लगता था) हमलोगों ने खुद की संस्था बनायीं "मासूम आर्ट्स " मैं उसका संस्थापक सचिव था ..साल था १९९७ या 98 ..खैर आसपास के इलाके में इस मंच के बैनर तले ताबड़तोड़ दर्ज़नो नाटकों का मंचन किया ...अबतक याद है.होमवर्क करने के बाद हम निकलते थे लालटेन लेकर निकलते थे पब्लिक स्कूल में रिहर्सल करने के लिए ..रात के नौ बजे से रात के बारह बजे तक..बहुतों को घर से निकलने की परमिशन नहीं थी ...छुपकर आता था..मज़ा बहुत आता था..अपनी हसी ठिठोली के बिच हम रिहर्सल भी कर लेते थे...लगभग पंद्रह बीस बच्चे थे और मैं नाटक का लेखक-निर्देशक...aise hi chalta रहा ..

    फिर , सुल्तानगंज के अपने मित्रों के साथ मैंने कुछ नाटक किये , परिस्थितिवश , हमारे परिवार को भागलपुर शिफ्ट होना पड़ा ..भैया हिन्दुस्तान अखबार में पत्रकार थे...वहीँ उनके साथ फोटोग्राफर थे शशि शंकर ...वो भी नाटक करना चाहते थे..उन्होंने भागलपुर में आले नाम से ek संस्था की नीव राखी ...शशि भैया से मुलाक़ात हुयी , फिर क्या था मैं भी जुड़ गया ..मदन जी से पहली मुलाक़ात एक कम्पूटर सेंटर में हुयी थी जहाँ वो पढ़ाते थे.. वो भी नाटक के "मरीज़ " थे...हमलोगों ने नव्लोक एकेडमी में नाटक का रिहर्सल किया ..आले के साथ मेरे पहला नाटक था "दस दिन का अनशन " ...फिर काफी नाटक में साथ रहा कभी मंच पर , कभी मंच के पीछे ...आलय ने काफी कुछ सिखाया , नाम दिया, पहचान दी . आलय के साथ अब ऐसा जुड़ाव हो गया है की अब मेरा हिस्सा हो गया है..कहीं रहूँ , फिकर रहती है..अभी पिछले दिनों मदन जी और शशि भैया ने अरविन्द गौर साहब से वर्कशौप कराने की बात की है..मेरे गाँव में भी "लाठी महोत्सव" होना है..उसी की तैयारियों में लगा हुआ हूँ..

Aboutus

डॉ ओम सुधा पिछले 15 साल से सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं. अपने सामाजिक जीवन में डॉ ओम सुधा ने लगातार देश के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं कि आवाज़ को मजबूती से उठाया है. तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर, बिहार से बालिका श्रमिकों कि सामजिक एवं आर्थिक स्थितियों का अध्ययन विषय पर शोध किया...    Read More

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